Friday 6 October 2017

भारतीय विज्ञान पर भारी अंधविश्वास :- अफ्फान नोमानी


भुतपूर्व  राष्ट्रपति व मिसाइल मेन के नाम से मशहूर  डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम व भारतीय विज्ञान अनुसंधान परिषद से संबद्ध वैज्ञानिक व मशहूर शायर गौहर रज़ा ने विज्ञान के छेत्र में जो मिसाल कायम की है वो अद्भुत है . धार्मिक दृष्टिकोण से कई मामलों में मेरा  इन दोनों से मतभेद रहा है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मैं इन दोनों से काफी प्रेरित हुआ हूँ . धार्मिक अंधविश्वास व वैज्ञानिक क्रियाकलापो पर गौहर रज़ा का निष्पक्ष सोच व बेबाक़ी का हम सभी विज्ञान व प्रौद्योगिकी  से ताल्लुक रखने वाले लोग कायल है . शायद यही वजह था कि हम सभी उस समय भी गौहर रजा के साथ खड़े थे जब कुछ मीडिया चैनलों ने रजा को ' देशद्रोह ' का ठप्पा लगा दिया था। 
मैंने एक अंग्रेजी अख़बार हंस इंडिया  में गौहर रज़ा व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से सम्बंधित मीडिया की निष्पक्षता व खबर विश्लेषण पर आधारित कई महत्वपूर्ण  बिंदुओ पर रौशनी डालने की कोशिश की थी . इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बैठे दक्षिणपंथी संपादक के लिए गौहर रज़ा शुरू से आँखों में चूभ रहे थे जिनकी वजह   बाबाओ व मठाधीशों  का नेताओ व  दक्षिणपंथी संपादक के घालमेल व अन्धविश्वास पर खुलकर लिखना था ।
गौहर रज़ा ने अपने एक आलेख में तो यहाँ तक लिख दिया कि  " मेरे जैसे वैज्ञानिक के लिए शर्म की बात है कि वैज्ञानिकों का सबसे बड़ा सम्मेलन ' विज्ञान कांग्रेस ' अब धार्मिक बन्दनाओ से शुरू होने लगा है। प्रक्षेपण से पहले वैज्ञानिक तिरुपति के मन्दिर में माथा टेकने जाने लगे हैं। प्रयोगशालाओं में भजन- कीर्तन  होने लगे हैं। यह अद्भुत हरकतें, कहीं परम्परा, और कहीं संस्कृति   के नाम पर हो रही हैं। मगर इन चीजों ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या अब हमारा विज्ञान अंधविश्वास  के साये में किया जाएगा ? एक वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह पूजा - पाठ इसरो की परम्परा है। अगर यह  परम्परा है तो क्या इसकी शुरुआत विक्रम साराभाइ ने की थी जो पारसी थे ?  या सतीश धवन ने जो पंजाबी  थे ?  "
भारत में विज्ञान व अन्धविश्वास  पर रजा ने जो चिंता  व्यक्त की है वह बिलकुल सही है। भारतीय विज्ञान पर भारी अंधविश्वास चिंता का विषय है ।  मैं जिस शिक्षण संस्थानों से  इंजीनियरिंग  की  डिग्री प्राप्त किया हूँ  वहाँ भी टेकेनिकल लैब की शुरुआत के पहले हिन्दू पूजा- पद्धति  के आधार पर शुभारंभ किया जाता रहा है, और यह हालात विज्ञान व प्रौद्योगिकी  पर आधारित देश के हर बड़े - बड़े शिक्षण संस्थानों की है। 
अगर शिक्षण संस्थानों में कार्यरत सभी धर्म के लोग ऐसे ही अपने - अपने अनुसार कार्य करना शुरू कर दें तो विज्ञान कहाँ रह पाएगा ?
सन् 1958 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में हमारा देश पहला देश बना जिसने ' विज्ञान नीति प्रस्ताव ( एस पी आर ) ' पारित किया। और सबसे बड़ी बात यह थी कि किसी भी नेताओं ने इसके खिलाफ  कुछ नहीं बोला। पुरा देश एकमत था कि देश के निर्माण का आधार, आधुनिक विज्ञान और  तकनीकी होगी । 
प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के शासनकाल में हमारे देश ने विज्ञान और  तकनीकी के छेत्र में कई मिसालें कायम की है। लेकिन आज तो इसके विपरीत प्रतीत होता है । देश के नेताओं की दिलचस्पी शिक्षा, विज्ञान व प्रौद्योगिकी  से ज्यादा मन्दिर व मस्जिदों में है। ऐसा लगता है जैसे देश के राजनेता और कई वैज्ञानिक भी, एक दूसरे से ज्यादा इन बाबाओ व मठाधीशों के करीब है।
बहुत अर्से बाद 23 सितंबर 2014 में हमारे देश  ने 450 करोड़ रुपये के लागत से मंगल   अभियान का सफल प्रक्षेपण किया था  जिसे पुरे दुनिया ने सराहा लेकिन दुर्भाग्य की बात यह  है कि हमारे ही देश के कुछ दकियानूसी सोच रखने वाले ने ये सवाल खड़े कर दिए कि क्या हमें इतने लागत से शोध पर पैसे बर्बाद करने चाहिए  ? हा लेकिन रजा जैसे कुछ और  साहसिक स्कॉलर   ने जल्द ही जबाव दे दिया था  कि "  हमें ये नहीं मालूम कि  इससे ज्यादा तो किसी एक बाबा का  बैंक बैलेस हैं। निर्मल बाबा, रामदेव बाबा, रवि शंकर व आसाराम ...... ये सब इससे ज्यादा की सम्पत्ति के मालिक हैं। जिन्होंने अन्धविश्वास के सिवा कुछ नहीं दिया . "
और यह सही बात है कि दरगाहों, गिरिजाघरो, गुरुद्वारो , मठों पर इतना चढ़ावा तो कुछ महीनों में जमा हो जाता है । 
अगर हम आकड़ों पर गौर करें तो भारत सरकार विज्ञान व तकनीकी  पर 419 बीलियन रुपये खर्च करती है जिसमें  रक्षा , भूगोलीय विज्ञान, ऊर्जा,  अंतरिक्ष  शोध व एटोमिक ऊर्जा सभी शामिल है। 
जबकि धार्मिक क्रियाकलापों पर इससे कई गुणा ज्यादा खर्च करती है। उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद के महाकुंभ  मेला में अकेले केन्द्रीय सरकार 10 बीलियन तो राज्य सरकार 800 मिलियन खर्च करती है। देश के कई मन्दिरो के पुजारी को केंद्र व राज्य सरकार की तरफ से मासिक वेतन मिलता है। 
वैष्णो  देवी मंदिर  की सलाना आय लगभग 380 करोड़ रुपये है,  शिर्डी   साई बाबा मंदिर में 400 करोड़ रुपये का चढ़ावा हर साल आता है। सन्  2015 के आकड़े बताते हैं कि तिरुपति बालाजी मंदिर  में करीब 832 करोड़ रुपये का सोना और दुसरा दान चढ़ाया गया। 
देश में ऐसे और छोटे- बड़े मंदिर व दरगाह है जहाँ के चढ़ावे  की गिनती नहीं की जाती है। कुल मिलाकर हमारा देश विज्ञान व  तकनीकी से ज्यादा धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़ा हुआ है। सवाल यह है कि हम यह सम्पत्ति विज्ञान की उन्नति पर खर्च करेंगे या  बाबाओ व अंधविश्वास  पर ? 

( लेखक अफ्फान नोमानी , रिसर्च स्कॉलर  व स्तम्भकार है )
affannomani02@gmail.com
9032434375

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