Friday 6 October 2017

देश में लगी नफरत की आग को बुझाइए

 अफ्फान नोमानी
भारत जैसे सोने की चिड़ियाँ का घर व रंग- बिरंगे  फूलों का बगीचा कहा जाने वाला मुल्क आज जिस परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसे मैं पूर्व राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन द्वारा कहें अन्त:करण को झिंझोड़ देने वाला  कथनों से शुरुआत करना चाहूँगा जब सन् 17 नवंबर 1946 को दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगे के बाद देश की बड़ी प्रसिद्ध विभूतियाँ, प्रबुद्धजनों व प्रसिद्ध लेखकों व चिंतको द्वारा दिल्ली में आयोजित विशाल जन - सभाओं में भव्य जन-समुह ( पंडित  जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, राजगोपालाचार्य, मिस्टर जिनाह, अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी , बाबा-ए-उर्दू अब्दुल हक, प्रसिद्ध शायर  हफ़ीज़ जालंधरी    , सर शेख अब्दुल कादिर, सम्पादक, मासिक पत्रिका मखजन, लाहौर, मौलाना कारी  मुहम्मद तैयब, प्राचार्य, दारुल उलुम देवबंद और अनेक शीर्ष राजनीतिज्ञ मौजूद थे  ) को सम्बोधित करते डॉ जाकिर हुसैन ने  हुए कहा था - " आप सभी महानुभाव राजनैतिक आकाश के नक्षत्र है, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के मन में आपके लिए प्रतिष्ठा व्याप्त है। आप की  यहाँ उपस्थिति का लाभ उठाकर मैं शैक्षिक कार्य करनेवालों की ओर से बड़े ही दुख: के साथ कुछ शब्द कहना चाहता हूँ।
आज देश में आपसी नफरत की आग भड़क  रही हैं । इसमें हमारा चमनबन्दी का कार्य दीवानापन मालूम होता है । यह शराफत और इंसानियत के जमीर को झुलसा देती है। इसमें नेक और  संतुलित स्वभाव की विभूतियों के नये पुष्प कैसे पुष्पित होगे ? जानवर से भी अधिक नीच आचरण पर हम मानवीय सदाचरण को कैसे संवार  सकेंगे ? जानवरों की दुनिया में मानवता को कैसे संभाल सकेंगे ? ये शब्द कुछ कठोर लगते हो, किन्तु ऐसी परिस्थितियों के लिए, जो हमारे चारों ओर फैल रही है, इससे कठोर शब्द भी बहुत नर्म होते हैं। हम जो काम के तकाजों से बच्चों का सम्मान करना सीखते है, उनको क्या बतायें कि हम पर क्या गुजरती है ? जब हम सुनते हैं कि पशुता के इस संकट में निर्दोष बच्चे भी सुरक्षित नहीं हैं । शायरे-हिन्दी  ने कहा था कि - हर बच्चा, जो संसार में आता है, अपने साथ यह संदेश लाता है कि खुदा अभी इन्सान से निराश नहीं हुआ है । लेकिन क्या हमारे देश का इन्सान अपने आपसे इतना निराश हो चुका है कि इन निर्दोष कलियों  को भी खिलने से पहले ही मसल देना चाहता है ? खुदा के लिए सिर जोड़ कर बैठिये और इस आग को बुझाइये । यह समय इस खोजबीन का नहीं कि आग किसने लगाई ? कैसे लगी ? आग लगी हुई है ,उसे बुझाइये । "
डॉ जाकिर हुसैन के यह विचार देश की वर्तमान स्थिति में पहले की अपेक्षा आज अधिक उपयोगी एवं प्रासंगिक होते है।
वर्तमान में मुल्क में जिस तरह की धार्मिक हिंसा, नफरत , अमर्यादित कटु भाषा का इस्तेमाल व नैतिक पतन में बढ़ोतरी हुई है , वह चिंता का विषय है । जब किसी समाज में जुल्म फैलाने लगा हो और पसंदीदा  निगाहों से देखा जाने लगा हो, जब अत्याचार का का मापदंड यह बन गया हो कि जालिम कौन है ? उसकी कौमियत क्या है ? वह किस वर्ग का है ? उसकी भाषा क्या है ? किस बिरादरी का है  ? तो मानवता के लिए एक खतरा पैदा हो जाता है । जब न्याय का मापदंड कौम, सम्प्रदाय और बिरादरी पर आधारित हो जाता है तो उस वक्त समाज को कोई ताकत की जेहानत, कोई सरमाया और बड़ी -बड़ी योजनाएँ बचा नही सकती । जालिम कोई भी हो उसको जुल्म से रोका जाये। यदि समाज में यह नैतिक बल और निष्पक्ष भाव तथा निष्ठा की भावना पैदा हो जाये तो समाज बच सकता है और अगर यह नहीं है तो दुनिया की कोई भी ताकत इस समाज को नहीं बचा सकती, आज हिन्दुस्तान में कमी इसी चीज़ की नजर आती है जिसके कारण समाज को खतरा पैदा हो गया है।
यदि कानून व न्यायालय के निर्णय खेल बन गये, यदि शांति - व्यवस्था बच्चों का मजाक बन गई तो इस देश में न तो पढ़ा जा सकता है और न लिखा जा सकता है, न मानवता की सेवा हो सकती है और न ही इल्मो-अदब की।
वैचारिक सहमति -असहमति की वजह से प्रसिद्ध लेखक व साहित्यकारों की हत्या, जानवर के नाम पर इन्सानो की हत्या, ये मानवता के लिए शर्म की बात नहीं है तो और क्या है ? क्या ऐेसे जघन्य अपराध करने वालों का दिलों में चीते, भेड़िये और दरिन्दे का दिलों का निवास हो गया है ? इस तरह की वैचारिक मानसिकता  की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? मेरा मकसद किसी विशेष राजनीतिक व धार्मिक संगठनों या फिर व्यक्ति विशेष पर निशाना साधना नहीं है , लेकिन जिस तरह से हालिया दिनों में निर्दोष इन्सानो की  हत्याओं में बढ़ोतरी हुई, यदि पेड़-पौधे और पशु बोलते तो वो आपको बताते कि इस देश की अन्तरात्मा घायल हो चुकी है। उसकी प्रतिष्ठा और ख्याति को बट्टा लगाया जा चुका है. और वह पतन एवं अग्नि परीक्षा के एक बड़े खतरे में पड़ गयी है। इस देश की नदियाँ, पर्वत और देश के कण -कण  तक आपसे अनुरोध कर रहे हैं कि आप इन्सानो का रक्तचाप न कीजिए, नफरत के बीज मत बोइये, मासूम बच्चों को अनाथ होने से और महिलाओं को विधवा होने से बचाइये । 
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, हिंसा और नैतिक पतन से मैं चिंतित जरुर  हूँ किन्तु निराश नहीं हूँ । मानव -प्रेम, स्नेह और नि:स्वार्थ सेवा तथा आध्यात्मिकता इस देश की परम्परा रही है 
और इसने इतिहास के विभिन्न युगों में यह उपहार बाहर भी भेजा है और अब भेज सकता है। आज संतों , धार्मिक लोगों, दार्शनिकों, लेखकों, आचार्यों व खासकर इस देश के होनहार नौजवानों को मैदान में आने, नफरत की आग बुझाने और प्रेम का दीप जलाने की आवश्यकता है । आजादी के बाद, देश के विभिन्न जगहों पर हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद हिन्दुस्तान के मशहूर इस्लामिक विद्वान मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी  उर्फ मौलाना अली मियाँ ने विभिन्न धर्म सम्प्रदाय व जाति के लोगों को एकजुट कर मुल्क की हिफाजत के आपसी प्रेम व भाईचारा का जो पैगाम फैलाया था वो आज भी करने की जरूरत है। 
मौलाना अली मियाँ ने बिहार के पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि " नफरत की इस आग को बुझाइये और याद रखिये ! जब यह हिंसा  किसी देश या कौम में आ जाती है तो फिर दूसरे धर्म वाले ही नहीं, अपनी ही कौम और धर्म की जातियाँ और बिरादरियाँ , परिवार, मुहल्ले, कमजोर और मोहताज इन्सान और जिनसे लेशमात्र भी विरोध हो, उसका निशाना बनते हैं।

( लेखक अफ्फान नोमानी, रिसर्च स्कॉलर व स्तम्भकार है ) 
affannomani02@gmail.com

भारतीय विज्ञान पर भारी अंधविश्वास :- अफ्फान नोमानी


भुतपूर्व  राष्ट्रपति व मिसाइल मेन के नाम से मशहूर  डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम व भारतीय विज्ञान अनुसंधान परिषद से संबद्ध वैज्ञानिक व मशहूर शायर गौहर रज़ा ने विज्ञान के छेत्र में जो मिसाल कायम की है वो अद्भुत है . धार्मिक दृष्टिकोण से कई मामलों में मेरा  इन दोनों से मतभेद रहा है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मैं इन दोनों से काफी प्रेरित हुआ हूँ . धार्मिक अंधविश्वास व वैज्ञानिक क्रियाकलापो पर गौहर रज़ा का निष्पक्ष सोच व बेबाक़ी का हम सभी विज्ञान व प्रौद्योगिकी  से ताल्लुक रखने वाले लोग कायल है . शायद यही वजह था कि हम सभी उस समय भी गौहर रजा के साथ खड़े थे जब कुछ मीडिया चैनलों ने रजा को ' देशद्रोह ' का ठप्पा लगा दिया था। 
मैंने एक अंग्रेजी अख़बार हंस इंडिया  में गौहर रज़ा व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से सम्बंधित मीडिया की निष्पक्षता व खबर विश्लेषण पर आधारित कई महत्वपूर्ण  बिंदुओ पर रौशनी डालने की कोशिश की थी . इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बैठे दक्षिणपंथी संपादक के लिए गौहर रज़ा शुरू से आँखों में चूभ रहे थे जिनकी वजह   बाबाओ व मठाधीशों  का नेताओ व  दक्षिणपंथी संपादक के घालमेल व अन्धविश्वास पर खुलकर लिखना था ।
गौहर रज़ा ने अपने एक आलेख में तो यहाँ तक लिख दिया कि  " मेरे जैसे वैज्ञानिक के लिए शर्म की बात है कि वैज्ञानिकों का सबसे बड़ा सम्मेलन ' विज्ञान कांग्रेस ' अब धार्मिक बन्दनाओ से शुरू होने लगा है। प्रक्षेपण से पहले वैज्ञानिक तिरुपति के मन्दिर में माथा टेकने जाने लगे हैं। प्रयोगशालाओं में भजन- कीर्तन  होने लगे हैं। यह अद्भुत हरकतें, कहीं परम्परा, और कहीं संस्कृति   के नाम पर हो रही हैं। मगर इन चीजों ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या अब हमारा विज्ञान अंधविश्वास  के साये में किया जाएगा ? एक वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह पूजा - पाठ इसरो की परम्परा है। अगर यह  परम्परा है तो क्या इसकी शुरुआत विक्रम साराभाइ ने की थी जो पारसी थे ?  या सतीश धवन ने जो पंजाबी  थे ?  "
भारत में विज्ञान व अन्धविश्वास  पर रजा ने जो चिंता  व्यक्त की है वह बिलकुल सही है। भारतीय विज्ञान पर भारी अंधविश्वास चिंता का विषय है ।  मैं जिस शिक्षण संस्थानों से  इंजीनियरिंग  की  डिग्री प्राप्त किया हूँ  वहाँ भी टेकेनिकल लैब की शुरुआत के पहले हिन्दू पूजा- पद्धति  के आधार पर शुभारंभ किया जाता रहा है, और यह हालात विज्ञान व प्रौद्योगिकी  पर आधारित देश के हर बड़े - बड़े शिक्षण संस्थानों की है। 
अगर शिक्षण संस्थानों में कार्यरत सभी धर्म के लोग ऐसे ही अपने - अपने अनुसार कार्य करना शुरू कर दें तो विज्ञान कहाँ रह पाएगा ?
सन् 1958 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में हमारा देश पहला देश बना जिसने ' विज्ञान नीति प्रस्ताव ( एस पी आर ) ' पारित किया। और सबसे बड़ी बात यह थी कि किसी भी नेताओं ने इसके खिलाफ  कुछ नहीं बोला। पुरा देश एकमत था कि देश के निर्माण का आधार, आधुनिक विज्ञान और  तकनीकी होगी । 
प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के शासनकाल में हमारे देश ने विज्ञान और  तकनीकी के छेत्र में कई मिसालें कायम की है। लेकिन आज तो इसके विपरीत प्रतीत होता है । देश के नेताओं की दिलचस्पी शिक्षा, विज्ञान व प्रौद्योगिकी  से ज्यादा मन्दिर व मस्जिदों में है। ऐसा लगता है जैसे देश के राजनेता और कई वैज्ञानिक भी, एक दूसरे से ज्यादा इन बाबाओ व मठाधीशों के करीब है।
बहुत अर्से बाद 23 सितंबर 2014 में हमारे देश  ने 450 करोड़ रुपये के लागत से मंगल   अभियान का सफल प्रक्षेपण किया था  जिसे पुरे दुनिया ने सराहा लेकिन दुर्भाग्य की बात यह  है कि हमारे ही देश के कुछ दकियानूसी सोच रखने वाले ने ये सवाल खड़े कर दिए कि क्या हमें इतने लागत से शोध पर पैसे बर्बाद करने चाहिए  ? हा लेकिन रजा जैसे कुछ और  साहसिक स्कॉलर   ने जल्द ही जबाव दे दिया था  कि "  हमें ये नहीं मालूम कि  इससे ज्यादा तो किसी एक बाबा का  बैंक बैलेस हैं। निर्मल बाबा, रामदेव बाबा, रवि शंकर व आसाराम ...... ये सब इससे ज्यादा की सम्पत्ति के मालिक हैं। जिन्होंने अन्धविश्वास के सिवा कुछ नहीं दिया . "
और यह सही बात है कि दरगाहों, गिरिजाघरो, गुरुद्वारो , मठों पर इतना चढ़ावा तो कुछ महीनों में जमा हो जाता है । 
अगर हम आकड़ों पर गौर करें तो भारत सरकार विज्ञान व तकनीकी  पर 419 बीलियन रुपये खर्च करती है जिसमें  रक्षा , भूगोलीय विज्ञान, ऊर्जा,  अंतरिक्ष  शोध व एटोमिक ऊर्जा सभी शामिल है। 
जबकि धार्मिक क्रियाकलापों पर इससे कई गुणा ज्यादा खर्च करती है। उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद के महाकुंभ  मेला में अकेले केन्द्रीय सरकार 10 बीलियन तो राज्य सरकार 800 मिलियन खर्च करती है। देश के कई मन्दिरो के पुजारी को केंद्र व राज्य सरकार की तरफ से मासिक वेतन मिलता है। 
वैष्णो  देवी मंदिर  की सलाना आय लगभग 380 करोड़ रुपये है,  शिर्डी   साई बाबा मंदिर में 400 करोड़ रुपये का चढ़ावा हर साल आता है। सन्  2015 के आकड़े बताते हैं कि तिरुपति बालाजी मंदिर  में करीब 832 करोड़ रुपये का सोना और दुसरा दान चढ़ाया गया। 
देश में ऐसे और छोटे- बड़े मंदिर व दरगाह है जहाँ के चढ़ावे  की गिनती नहीं की जाती है। कुल मिलाकर हमारा देश विज्ञान व  तकनीकी से ज्यादा धार्मिक क्रियाकलापों से जुड़ा हुआ है। सवाल यह है कि हम यह सम्पत्ति विज्ञान की उन्नति पर खर्च करेंगे या  बाबाओ व अंधविश्वास  पर ? 

( लेखक अफ्फान नोमानी , रिसर्च स्कॉलर  व स्तम्भकार है )
affannomani02@gmail.com
9032434375

लिखने -बोलने की आज़ादी पर अंकुश व कांचा इलैया का दर्द

 इंजीनियर अफ्फान नोमानी 
यह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है कि हम असहिष्णुता के प्रति भी बहुत सहिष्णु हो गए है। जब कुछ लोग -जो अकसर अल्पसंख्यक समाज के सदस्य होते हैं - संगठित विरोधियों के हमले का शिकार होते है तो उन्हें हमारे समर्थन की जरूरत होती है। अभी ऐसा नहीं हो रहा है। और पहले भी कभी पर्याप्त रूप से ऐसा नहीं हुआ। जिसका ताजा उदाहरण है 65 वर्षीय मशहूर लेखक व दलित चिंतक प्रोफेसर कांचा  इलैया शेफर्ड । कांचा इलैया शेफर्ड की पुस्‍तक पोस्‍ट-हिंदू इंडिया (2009) के कुछ अध्‍याय एक प्रकाशक द्वारा तेलुगु में पुस्तिकाकार दोबारा प्रकाशित किए जाने के बाद  आर्य वैश्‍य समुदाय के कुछ लोगों की ओर से लगातार जान की धमकी, अपशब्‍द और निंदा झेलनी पड़ रही है। 
मैं हैदराबाद के स्थानीय अखबारों में आन्ध्रा व तेलन्गना के विभिन्न शहरों में  वैश्य व आर्य समाज  द्वारा कांचा इलैया शेफर्ड  की गाड़ी पर हमले व विरोध प्रदर्शन की खबरें प्रतिदिन पढ़ रहा हूँ लेकिन अफसोस  कि राष्ट्रीय  मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर व मुद्दा नहीं और न ही इस मुद्दों पर चैनल पर कोई बहस, नफरत के खिलाफ आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवी भी खामुश हैं .   एक अंग्रेजी अखबार को दिये साक्षात्कार में शायद कांचा इलैया शेफर्ड  ने  इसलिए कहा कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी मेरे मामले पर क्‍या इसलिए चुप हैं क्‍योंकि मैं निचली जाति से आता हूं ? 

आखिर मामला क्या है ?

कांचा इलैया शेफर्ड  के मुताबिक सन् 2009 में प्रकाशित पुस्तक पोस्‍ट-हिंदू इंडिया  मशहूर पुस्तकों में से एक है -जिसमें विभिन्‍न जातियों पर अलग-अलग अध्‍याय शामिल हैं- नाइयों पर एक अध्‍याय का नाम है ”सोशल डॉक्‍टर्स”, धोबियों पर अध्‍याय का नाम है ”सबाल्‍टर्न फेमिनिस्‍ट्स”, इत्‍यादि। बनियों पर लिखे अध्‍याय का नाम है ”सोशल स्‍मगलर्स” और ब्राह्मणों पर अध्‍याय का नाम है  ”स्पिरिचुअल फासिस्‍ट्स”। इस जून में एक छोटे से प्रकाशक ने हर अध्‍याय को अलग पुस्‍तकाकार छाप दिया और आवरण पर जातियों का नाम डाल दिया। इसी के बाद आर्य वैश्‍य समुदाय की ओर से हिंसक प्रदर्शन शुरू हुआ। आर्य वैश्‍य समुदाय के होशले तब और ज्यादा बुलन्द हो गये  जब टीडीपी के एक सांसद पीजी वेंकटेश ने एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में कांचा इलैहया को फांसी पर लटका कर मार देना चाहिए जैसा मध्यपूर्व में होता है, घोषणा कर दिया .उग्र भीड़ द्वारा 23 सितंबर 2009 को ‍ कार पर किए हमले के बाद  उस्‍मानिया युनिवर्सिटी के थाने में केस दर्ज कराया गया . 

पोस्ट -हिन्दू इंडिया ' के अध्याय " वैश्यास आर स्मगलर  " के हवाले से कांचा इलैहया कहते हैं कि - "  सोशल स्‍मगलिंग की अवधारणा मैंने जाति आधारित आर्थिक शोषण को सामने रखने के लिए बनाई, जिसकी शुरुआत गांव से होती है और एकाधिकारी बनिया पूंजी तक जाती है जिसमें अंबानी, अडानी, लक्ष्‍मी मित्‍तल इत्‍यादि शामिल हैं। सोशल स्‍मगलिंग धोखाधड़ी वाले कारोबार का तरीका है जो बनियों की अर्थव्‍यवस्‍था में पैसे को संकेंद्रित करता जाता है और इसे उत्‍पादकों तक वापस नहीं जाने देता, जो धन संपदा के स्रोत हैं। ऐतिहासिक रूप से बनिया और ब्राह्मणों के गठजोड़ के चलते धन संपदा मंदिरों में भी एकत्रित होती रही। इससे मध्‍यकाल और उत्‍तर-मध्‍यकाल में व्‍यापारिक पूंजी का विकास नहीं हो सका और बाद में देसी पूंजी नहीं पनप सकी।
कारोबार का यह दुश्‍चक्र मनु, कौटिल्‍य और वैदिक पाठ के आध्‍यात्मिक दिशानिर्देशों के आधार पर चलता है। पश्चिम से उलट भारत में केवल एक जाति को कारोबार करने की छूट थी। स्‍मगलिंग का मतलब होता है गैर कानूनी तरीके से धन संपदा को देश की सरहदों से बाहर ले जाना, लेकिन सोशल स्‍मगलिंग का मतलब है सभी जातियों की धन संपदा को छीन कर एक ही जाति के दायरे में इकट्ठा कर देना- बनिया, जहां तक दूसरों की कोई पहुंच न हो। इस तरह धन संपदा देश के भीतर ही रहती है लेकिन एक जाति के कब्‍जे में हो जाती है। यह लौट कर कृषि या धर्मादा व शिक्षण कार्यों में नहीं जा पाती। यह ऐतिहासिक रूप से यहां हुआ है और आज भी आधुनिक निजीकृत अर्थव्‍यवस्‍था में जारी है। यही वजह है कि भारत में 46 फीसदी कॉरपोरेट निदेशक जाति से बनिया हैं जबकि इनकी आबादी 1.9 फीसदी है। ब्राह्मण दूसरे स्‍थान पर आते हैं जिनकी जाति के कॉरपोरेट निदेशकों की दर 44.6 फीसदी है। "


सवाल अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने का है 

सवाल है कि अगर किसी को किसी का लिखना या बोलना पसंद नहीं है तो वो उसका विरोध व जबाव लिखकर या बोल कर दे लेकिन इसका जबाव हमला व हत्या कर नहीं नहीं दिया जा सकता। वाक् स्वाधीनता की इस शर्त को आजकल बहुत लोग जानते है। लेकिन जानते हुए भी कुछ कट्टरपंथी विचारधारा के लोग इस शर्त को बिलकुल नहीं मानना चाहते।
कुछ दिनों पहले दर्शनशास्त्र के एक स्कालर ने स्वतंत्रता के लगातार सिकुड़  जाने के बात की थी वो आज की तारीख़ में बिलकुल साफ़ दिख रहा है कि इस समय सारा सामाजिक संवाद फिर वह संसद में हो या मीडिया, खासकर इलेक्ट्रोनिक चैनलों पर या जनसभाओं में, इस कदर झगड़ालू, आक्रामक, गाली -गलौज से भरपूर होता जा रहा है कि उसमें किसी सभ्य और सम्यक् संवाद हो पाने की संभावना लगातार घट रही है। राष्ट्रवाद, भारत माता की जयकार आदि अपने मुख्य आशय में दूसरों को पीटने के औजार बन रहे है।
खुदा का शुक्र है की कुछ ऐसे बेबाक पत्रकार, लेखक, उलेमा व सामाजिक कार्यकर्ता है जो जान का जोखिम उठाकर जुल्म व अन्याय के खिलाफ लिख-बोल रहे हैं। कई बार यह सोचकर दहशत होती है कि उनकी संख्या शायद घट रही है। एक तो समाज में " कौन झंझट में पड़े " की मानसिकता पहले से व्याप्त है,  मुझे डर है कहीं यह मानसिकता बेबाक लोगों में विकसित व व्याप्त न हो जाए।
सैकड़ों दलितों, मुसलमानों,  व  एमएम कलबुर्गी, दाभोलकर, पनसारे व गौरी लंकेश जैसे बेबाक लेखकों व पत्रकारों की हत्या और अब फिर कांचा इलैया पर हमले हो रहे है और एक तरह का हत्यारा माहौल पुरे देश में फैलता जा रहा है उसके बारे में चुप रहना भारतीय संविधान, भारतीय संस्कृति और परंपरा, भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जन सभी के साथ, एक साथ, विश्वासघात करने के बराबर है।
सवाल है कि जो स्वतंत्रता  हमें अपने पुरखों के संघर्ष से मिली है उसे बचाया कैसे जाय ? क्या हम स्वतंत्र लिखने -बोलने व अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों के साथ खड़े हैं ? अत्याचार व जुल्म के खिलाफ यह लड़ाई कोई एक पक्ष नहीं लड़  सकता है। यह लड़ाई सभी अमन पसंद लोगों को मिलकर लड़ना पड़ेगा।

( लेखक इंजीनियर अफ्फान नोमानी , रिसर्च स्कॉलर  व स्तम्भकार है और साथ ही 
एन आर साइंस सेंटर -कॉम्प्रिहेंसिव एंड ऑब्जेक्टिव स्टडीज , हैदराबाद से जुड़े है 
@affannomani02@gmail.com
7729843052 ).

Tuesday 14 February 2017

Love vs Hate :- Engineer Affan Nomani

The word like Love or Hate , both are totally opposite to each other.
But both are not completely fulfill without each other. These two
words always live with each other from the beginning of the ancient
period.
Yes, It is a different matter that thousand of difficulties have to be
face for spreading the affection of love in the universe. But we must
remember that love always won the history.
Love may be create the suspicion but its depend on  the borrow minded
and narrow minded person.
Prophet Muhammed ( Sw ) clearly said that " Allah always like the
person those who spread the love and brotherhood among communities
while Allah dislike the person those who spread the hostility among
communities. "

Dr. Martin Luther king said " Darkness can not drive out darkness;
only light can do that. Hate can not drive out hate; only Love can do
that ".
We must remember one thing is that ' Love always depends on truth or
trust not on fraud.

But now a days, most of the people are frauding from each other. Then,
how the affection of love will be strong ?
The affection of love from each other  will be strong when we will try
to win hurt of others and realize our mistakes.