Friday 2 December 2016

शिक्षा का गिरता स्तर और नेताओ का घालमेल

 अफ्फान नोमानी ,  रिसर्च स्कॉलर    स्तंभकार
शुरुआत झारखण्ड से ही करते हैं , क्योंकि  हाल ही में  झारखण्ड के
विभिन्न गांव व शहरी छेत्रों सिंघाड़ी , मेहरमा, महागामा , पथरगामा व
गोड्डा जिले के विभिन्न विद्यालयों में शिक्षा के हालात का जायजा लेने का
अवसर मिला . झारखण्ड का गठन हुवे 16वां साल होने को है  लेकिन शिक्षा
स्तर में सुधार के बजाय हलात  बद से बदतर होता जा रहा है .  प्रदेश के
बहुत से विद्यालय आज भी विभिन्न समस्याओ से जूझ रहे है - कहीं निर्मित
विद्यालय भवन खण्डहर पड़ा है तो  कहीं निर्मित विद्यालय भवन से पानी टपक
रहा है ,  कहीं 85% बच्चे गैरहाजिर , कहीं शिक्षक बच्चों के  शिक्षा के
प्रति उत्तरदायित्व नही .और तो और  उत्तकर्मित मध्य विद्यालय सिंघाड़ी व
गोड्डा जिले के  कई ऐसे विद्यालय है जहाँ शिक्षक बच्चों को शिक्षा प्रदान
करने के बजाय  बच्चों के साथ प्रतिदिन सूर्यनमस्कार व  शाखा लगाने में
व्यस्त है . लेकिन इसकी खबर लेने वाला कोई नही है .

यह हाल लगभग देश के कई राज्यों  की है . 28 अक्टुबर 2014 को एक  अख़बार मे
 प्रकाशित खबर  के मुताबिक  राजस्थान सरकार ने 17,000 से अधिक विद्यालय ,
महाराष्ट्र  सरकार ने 14,000 विद्यालय व ओडिशा सरकार ने 195 से अधिक
विद्यालय बच्चो की गैरहाजिरी व शिक्षको का  बच्चों के शिक्षा के प्रति
उत्तरदायित्व न होने की वजह से ही  बंद करने का निर्णय लिया था .
बड़ा सवाल है कि देश में शिक्षा को लेकर ऐसे हालात क्यों उत्पन्न हो रहे है ?
मोदी सरकार के ढाई साल पुरे हो गए लेकिन शिक्षा के छेत्र में ऐसी कोई
कारगर योजनाएं लागु नहीं हो पायी है जिससे भारतीय शिक्षण संस्थान
विश्वस्तरीय बनने का सपना भी पाल सकें बल्कि इसके उलट कभी सिलेबस में
तबदीली तो कभी मुग़ल शाशक व नेहरू जैसे शीर्ष भारतीय नेताओ के नाम हटाकर
शिक्षा के भगवाकरण का प्रयास किया जा रहा है. शिक्षा अगर सरकारी
प्राथमिकता में होती , तो उसकी झलक शिक्षा बजट में मिल जाती . सरकारी
आंकड़े ही बताते है कि केंद्र सरकार प्राथमिक शिक्षा पर फ़िलहाल जीडीपी का
1.57 फीसदी , जबकि माध्यमिक शिक्षा पर महज 0.98 फीसदी खर्च कर रही है .
उच्च और तकनीकी शिक्षा पर तो इससे भी कम ( क्रमशः 0.89 फीसदी और 0.33
फीसदी ) खर्च हो रहा है .
मई 2015 में अंग्रेजी अख़बार हंस इंडिया में प्रकाशित अपने लेख ' सेव
इंडियन साइंस ' में  मोदी सरकार के पहले शिक्षा बजट यूपीए-2  काल के बजट
82771 करोड़ से घटकर 69074 करोड़ पर लुड़क गयी , में उल्लेख किया था .
नतीजा सामने है , फ़ेक डिग्री व कम पढ़े -लिखें नेता ऐेश  मौज कर रहे है और
लाखों युवाओं के पास इंजीनियरिंग , तकनीकी या प्रबंधन डिग्री तो है ,
लेकिन बेरोजगारों की कतार में शामिल होने के लिए मज़बूर है .

हाल में एनसीआरटी के पूर्व निदेशक , प्रो जगमोहन सिंह  राजपूत ने एक लेख
में लिखा है   " देश भर में बहुत से नेताओ ने कई संस्थान खोले और खुलवाये
है . नये संस्थानों के लिए इन नेताओ ने स्वीकीर्तियां प्राप्त की
स्वीकीर्तियां दी भी . ये स्वीकीर्तियां कैसे दी गयी , यह हम सब जानते है
. ऐसे में जैसे ही संस्थान -सुधार की बात आती है , कोई न कोई अड़चन आ जाती
है , जो राजनीती से प्रेरित होती है . कुल मिलकर , उच्च , तकनीकी और
प्रबंधन के छेत्रों में काबिलियत के स्तर गिरने का बुनियादी कारण यह है
कि संस्थान खोले जाने का उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता नहीं , बल्कि
आर्थिक लाभ हो गया है ".
देश की शिक्षण संस्थान के गिरते स्तर व नेताओ का घालमेल एक सच्चाई है ,
जिससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते .
भ्रष्टाचार , कुशासन और राजनीतिक हस्तक्षेप आज उच्च शिक्षा में हर जगह
दिखाई देता है .
हाल में ' द  एसोसिएटेड  चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ( एसोचैम ) की
रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही संकेत कर रही  है .
एसोचैम सर्वे के मुताबिक , देश में मौजुद 5500 बिजनेस स्कूलों में से
आईआईएम सहित कुछ मुट्ठीभर शीर्ष संस्थानों को छोड़ दे , तो बाकी से हर साल
लाखों रूपये की फीस देकर मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन ( एमबीए )
डिग्री हासिल कर रहे लाखों विद्यार्थियों में से सिर्फ सात फीसदी ही
नौकरी पाने के काबिल बन पाते है . बिजनेस स्कूलों के कैंपस रिक्रूटमेंट
में 2014 से अब तक 45 फीसदी तक की भारी गिरावट आयी है . बड़ी संख्या में
एमबीए डिग्रीधारी विद्यार्थी 10,000 रुपये से भी काम मासिक पगार पर नौकरी
ज्वाइन कर रहे है , जो अर्धबेरोजगारी की निशानी है . दूसरी और , देश में
एमबीए पाठ्यक्रम के लिए उपलब्ध कुल सीटों की संख्या 2011- 12 में 3.6 लाख
से बढ़कर 2015-16 में 5.2 लाख हो गयी .
एसोचैम के राष्ट्रिय महासचिव डीएस रावत इस दुर्दशा का कारण ज्यादातर
प्रबंधन संस्थानो में कमी बताते हैं .
प्रबंधन से इंजीनियरिंग के हालात फिर भी ठीक है लेकिन एस्पाइरिंग माइंड्स
की नेशनल एम्प्लॉयबिलिटी द्वारा 650 इंजीनियरिंग कॉलेजों के  सर्वे के
मुताबिक़ 2015 में इंजीनियरिंग डिग्री हासिल करने वाले 80% इंजीनियरों को
अच्छी कंपनी में रोज़गार नहीं मिल पाया है जो कॉलेज के टॉप  इंजीनियरिंग
छात्र थे उन्होंने लेक्चरशीप का रास्ता चुन लिया . कोई इंजीनियरिंग
कॉलेजो में लेक्चर दे रहे है तो कोई निजी कम्पीटिटिव    संस्थानो में
भावी छात्रों को गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए तराश रहे है . उच्च , तकनीकी
और प्रबंधन  शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में आड़े आ रही समस्याओं के
समाधान के प्रति सरकारों के लापरवाह रवैये से हालात साल -दर साल बदतर
होते जा रहे है . सिर्फ आईआईटी , आईआईएम या अन्य अच्छे यूनिवर्सिटी ,
सरकारी कॉलेजों के भरोसे देश तरक्की नहीं कर सकता है . निजी संस्थानों ,
विश्वविद्यालयों , जहाँ से ज्यादा संख्या में छात्र हर साल निकल रहें है
, की निगरानी के लिए मौजूद तंत्र को कारगर बनना जरुरी है . यह अच्छी बात
है कि मोदी सरकार ' स्किल इंडिया ' के तहत करोड़ों युवाओं को हुनरमंद
बनाने का इरादा जता रही है , लेकिन इस मुहीम पर अमल हो तभी कारगर साबित
होगी . मोदी सरकार , सिलेबस में तबदीली करने के बजाय , शिक्षण संस्थानों
में राजनितिक हस्तक्षेप पर अंकुश लगाए व उच्च शिक्षण संस्थानों को भरपूर
सहयोग व रोजगार के अवसर मुहैया कराये तभी हमारा देश  'चौथी औद्योगिक
क्रांति' के मुहाने पर पर खड़ी दुनिया में अपनी पैठ बनाने में सफल हो.

 इंजीनियर अफ्फान नोमानी रिसर्च स्कॉलर    स्तंभकार है  और शिक्षा , विज्ञान व समसामयिक मुद्दों पर इनके लेख देश के विभिन्न अंग्रेजी , हिंदी व उर्दू पत्र-पत्रिकाओ में लगातार पढ़ा जा सकता है.

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